‘छपाक’ के टाइटल पर निर्देशक ने कहा- बताना चाहती थी कि इतनी नरम चीज कितनी हानिकारक हो सकती है

बॉलीवुड डेस्क. अपनी पिछली फिल्मों ‘तलवार’ और ‘राजी’ की लगातार कामयाबी के साथ लेखक-निर्देशक मेघना गुलजार अब अपनी आगामी फिल्म ‘छपाक’ को लेकर दर्शकों से रूबरू हो रही हैं। एसिड अटैक पीड़ित लक्ष्मी अग्रवाल के जीवन से प्रेरित इस फिल्म में दीपिका पादुकोण ने मुख्य भूमिका निभाई है। बहरहाल, मेघना गुलजार ने अपनी पिछली तीनों फिल्मों ‘तलवार’,‘राजी’ और अब ‘छपाक’ की मिक्सिंग, मुंबई के अंधेरी-पश्चिम स्थित स्टूडियो ‘साउंड एंड सिटी’ में की हैं। इस स्टूडियो से जुड़ी सहूलियतों को अब वह आदत कहने लगी हैं। इसी स्टूडियो में मेघना से यह विशेष बातचीत हुई।
इस स्टूडियो से लगाव को किस तरह देखती हैं?
एक्चुअली, मुझे फैमिलियरिटि पसंद है। जहां पर सिंक अच्छा बैठा हुआ हो, काम अच्छा हुआ हो, वहां और उन लोगों के साथ दोबारा काम करना अच्छा लगता है। मिक्सिंग के तहत हम लोग यहां पर फिल्म से जुड़े सभी साउंड्स को जोड़कर एक साउंड-ट्रेक बना रहे हैं।
कहानी और सिनेमाई एस्थेटिक्स से अलग आप फिल्म के टेक्निकल पहलू को लेकर किस तरह सजग रहना पसंद करती हैं?
मेरी कोशिश रहती है कि फिल्म लिखे जाने से लेकर फाइनल प्रिंट की कॉपी बने जाने तक उसके हर प्रोसेस से जुड़ी रहूं, क्योंकि वह मेरी सीख है। मुझे लगता है कि मैं अपनी हर फिल्म से कुछ न कुछ नया सीखती हूं। ऐसा नहीं है कि डायरेक्टर बन गई हूं तो कुछ सिखाने के लिए जुड़ी हूं... कुछ नया सीखने के लिए मैं उस प्रोसेस से जुड़ती हूं। मुझे यह जरूरी लगता है कि अगर शुरू से अंत तक प्रोसेस से जुड़े रहें तो फिल्म का एक सुर बंध जाता है। इससे आपकी सेंसिबिलिटी पूरी फिल्म में रिफ्लेक्ट होती है। आपकी फिल्म इधर-उधर नहीं भागती है।
तो जिन तकनीशियनों से आप पिछली तीन फिल्मों से जुड़ी हैं, क्या वे आपके सुर में या रंग में रंग गए हैं?
यह मिल-बांट कर सीखना हुआ है। एक अच्छा-सा एक्सचेंज हुआ है, जिसमें कुछ मैंने उनसे लिया है तो कुछ उन्होंने मुझसे। जैसे, पहले मैं वॉल्यूम या बैकग्राउंड वॉल्यूम बढ़ाने में झिझकती थी, लेकिन अब मैं खुद कहती हूं कि इसका लेवल थोड़ा बढ़ा दीजिए। कई बार देबू सर कहते हैं कि हां, मुझे भी ऐसा लगता है... और हम वैसा कर लेते हैं।
इस फिल्म के टाइटिल ‘छपाक’ में ब-लफ्ज क्या मायने छिपे हैं?
पानी या किसी भी तरल की बौछार का जो साउंड होता है, यह उस साउंड को जाहिर करना वाला एक फोनेटिक साउंड है। इस साउंड का कोई मायने नहीं है। जब मैं सोच रही थी कि ‘एसिड अटैक’ जैसे मुद्दे पर फिल्म बना रही हूं तो मुझे काफी कठोर या थोड़ा नाजुक टाइटिल रखना पड़ेगा। मुझे दोनों ही सही नहीं लगे। मुझे लगा कि बीच की बात पकड़नी होगी, जिसे मेटफॉरिकली कहा जाए। मैं एसिड-अटैक को न रोमांटिसाइज करना चाहती और न उसे काव्यात्मक बनाना चाहती थी। इस टाइटिल में यह बात झलकती है कि एक तरल जैसी नरम चीज इतनी ज्यादा हानिकारक हो सकती है।
दीपिका पादुकोण को यह फिल्म करने के लिए कैसे राजी किया या पहले क्या किन्हीं के जरिए दीपिका तक स्क्रिप्ट पहुंची और फिर आपने बातचीत आगे बढ़ाई ?
लिखने के दौरान कई बार दिमाग में खयाल आता था, लेकिन उसे जाहिर नहीं करते थे। लगता था कि कोई नामुमकिन-सी चीज सोच रहे हैं। ‘छपाक’ की स्क्रिप्ट कंपलीट करने के बाद हमने ‘राजी’ बनाई और उसके बाद जनरल मानेक शॉ की स्क्रिप्ट पर विचार कर रहे थे। एक प्वाइंट पर लगा कि मानेक शॉ की तैयारी में काफी वक्त लगेगा, सो हमने ‘छपाक’ की स्क्रिप्ट पर पहले काम करना शुरू किया। लगा कि यह थोड़ा जल्दी बन सकती है और साथ में अचानक क्यूं ऐसा लगा कि फिल्म के लिए एक बार दीपिका से बात करके देख ली जाए। संयोग से दीपिका और हमारे प्रतिनिधि एक ही हैं तो उनसे समय पर बातचीत हो गई। वह लगभग आधे-पौन घंटे की मीटिंग रही होगी। बातचीत के अंत में उन्होंने कहा कि लगातार दो-तीन गंभीर फिल्में करने के बाद इन दिनों मैं एक लाइट-मूड फिल्म करना चाह रही हूं, लेकिन इस फिल्म को इंकार नहीं कर सकती। जिस तरह दीपिका से मिलने का विचार मुझमें यकायक आया था, वैसे ही उन्होंने फिल्म करने का फैसला तुरंत कर लिया था। मेरा तजुर्बा कहता है कि जब किसी फिल्म के साथ ऐसा होता है तो वह फैसला शुभ होता है।
लक्ष्मी दिल्ली की हैं। क्या इस रोल के लिए दीपिका को कोई एक्सेंट या लहजा दिया गया है?
दिल्ली का एक्सेंट क्या होता है? यह एक्सेंट फिल्मों में होता है। हम जिस तरह से पारसी लोगों को बोलते हुए दिखाते हैं, देखा जाए तो रिअल लाइफ में वे वैसे होते भी नहीं हैं। या जैसे ‘राजी’ में हमने सत्तर का दशक दिखाया है, लेकिन किसी ने न बेलबॉटम पहना और न कान के पास बालों की बड़ी-बड़ी कलमें रखीं। यह सब फिल्मों में होता है। हां, बोलचाल में एक लहजा या तड़का होता है, वह हमने रखा है। बेशक, पूरी फिल्म दिल्ली में शूट हुई है तो उसमें आपको दिल्ली दिखेगी और सुनाई भी देगी। यहां मुंबई फिल्मसिटी में शूट करके मैंने दिल्ली नहीं बताया है।
हमारे न्यूज-चैनल्स पर ऐसे घटनाक्रमों के जो नाट्य-रूपांतरण प्रस्तुत होते हैं, उनके जरिए दर्शक मामले को काफी समझ-देख चुके होते हैं। ऐसे में सिनेमा के प्रभाव को किस तरह आंकती हैं?
अब मैं आपसे पूछती हूं कि आपने ‘सनसनी’ भी देखी है और ‘इंडियाज मोस्ट वांटेड’ भी देखे हैं और फिर मेरी फिल्म ‘तलवार’ भी देखी है। आपको उस एक घटनाक्रम की अलग-अलग प्रस्तुतियों में कुछ अंतर दिखाई दिया क्या..., बस सिनेमा के प्रभाव का वही अलग अंतर है। मैं समझती हूं कि न्यूज-चैनल्स अपने अलग उद्देश्य से कार्यक्रम बनाते हैं और सिनेमा का, विशेषकर मेरे सिनेमा का अलग उद्देश्य होता है। आरुषि-हत्याकांड पर दो फिल्में बनी थीं और उन दोनों में बड़ा अंतर था। यह अंतर सेंसिबलिटि का ही होता है।
‘छपाक’ के म्यूजिक के बारे में बताइए?
शंकर-अहसान-लॉय का म्यूजिक है। आइटम सांग कोई नहीं है, सभी गीत कहानी से जुड़े हैं। फिल्म एसिड अटैक के अलावा जिंदगी और एक लव-स्टोरी के बारे में है तो उसी अनुसार गीत-संगीत हैं। इन गानों को अरिजित सिंह और सिद्धार्थ महादेवन ने गाया है। म्यूजिक की सबसे अच्छी बात यह लगी कि फिल्म का मुख्य चरित्र मालती है, जो एसिड अटैक सर्वाइवर है,लेकिन इसके तीनों गाने पुरुष स्वर में हैं। ऐसे गीत-संगीत में मुझे पुरुष स्वर अच्छा लगता है।
अब मानेक शॉ की तैयारी किस स्तर पर है?
अभी मेरा पूरा ध्यान-ईमान-बलिदान... सब-कुछ ‘छपाक’ पर ही न्यौछावर है, जब तक कि फिल्म दर्शकों तक पहुंचती है। उसके बाद इस फिल्म को अपने सिस्टम से बाहर निकालने के लिए और फैमिली के साथ समय बिताने के लिए एक छुट्टी पर जाऊंगी। उसके बाद मानेक-शॉ पर काम करेंगे। कुछ लिखूंगी, नई स्क्रिप्ट से संबंधित।
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